by James Surowiecki
About Book
Why Should You Read This Summary?
क्या आपने किसी फेल्ड एक्सपर्ट को देखा है और सोचा है की आप उनसे बेहतर कर सकते थे? हो सकता है की आप गलत नहीं थे। एवरेज लोगों से बने ग्रुप हैरान कर देने वाले अच्छे फैसले ले सकते हैं। अक्सर, वह अकेले काम कर रहे टॉप एक्सपर्ट्स से बेहतर परफॉर्म करते हैं। यह समरी इस अजीब phenomena के बारे में बताती है जिसे "विजडम ऑफ़ क्राउड्स" यानी भीड़ की बुद्धि कहते हैं। यह साइंस, मेडिसिन, कंपनी, jury और दूसरे इंपोर्टेट फील्ड्स में भी अप्लाई होता है।
यह समरी किसे पढ़नी चाहिए?
• एम्प्लॉयज और मैनेजर्स
• इन्वेस्टर्स और एंटरप्रेन्योर्स
• जो फैसले लेने के साइंस में इंटरेस्टेड हों
ऑथर के बारे में
म्स सुरोविकी एक बिज़नेस जर्नलिस्ट हैं जो मेनली स्टॉक मार्केट और फाइनेंशियल डिसिशन लेने पर फोकस करते हैं। जोम्स ने "द न्यू यॉर्कर" में 17 साल से भी ज़्यादा समय तक एक कॉलमनिस्ट की तरह काम किया था। उनके आर्टिकल्स "द वॉल स्ट्रीट जर्नल", "वायर्ड" और "स्लेट" में भी पब्लिश किए गए हैं।
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इंट्रोडक्शन
तम सभी ने टीमवर्क के बारे में बहुत सी अच्छी बातें सुनी हैं, लेकिन क्या ग्रुप में काम करना सच में इतना अच्छा होता है? पुप्स को अकेले इंसान से कंपेयर करके हम आसानी से इस बात का पता लगा सकते है।
यहा तक की समय-समय पर ग्रुप्स सबसे टैलेंटेड लोगों को भी पीछे छोड़ देते हैं। अगर ग्रुप के मेंबर्स उस टैलेंटेड इसान से कम स्किल्ड हों तब भी यह रूल अप्लाई होता है।
अकेले काम कर रहे लोग आसानी से गलती कर देने हैं। हम अपने फैसलों पर अपने इमोशंस और विश्रीपस का असर होने देने हैं, लेकिन ज्यादा लोगों का होना अलग होता है। इसमें एक अकेले इंसान की गलती कैसल हो जाती है और उन्हें सही सॉल्यूशन का रास्ता दिखाती है।
इस समरी में, जाप जानेंगे की कैसे ग्रुप्स अलग-अलग फील्ड के एक्सपर्ट्स को पीछे छोड़ सकते हैं। यह स्टॉक मार्केट से लेकर साइंटिफिक रिसर्च तक में हो सकता है। हालांकि, एक अकेले तुसान से बेहतर बनने के लिए ज़्यादा लोगों की भीड़ को कुछ कंडीशस पूरे करने होंगे। आप ये भी जानेंगे की कैसे इंडिपेंडेंस, डायवर्सिटी और decentralisation एक ग्रुप को अपग्रेड कर सकता है।
एक्सप्ट्स हमारी जिंदगी के हर एरिया में पॉलिसी बनाने के फैसले को कट्रोल करते हैं, लेकिन सच में वह इतना पावर जिजर्व नहीं करते हैं। साथ में काम करने से हमारे जैसे एवरेज लोग भी इन एक्सपर्ट्स से ज़्यादा सक्सेसफुल हो सकते हैं। यह समरी आपको बताएगी की आप अपने ग्रुप को next लेवल पर कैसे ले जा सकते हैं।
The Wisdom of Crowds
एक शी है जो दुनिया भर में बेहद पॉपुलर है: "Who wants to be a millionaire?" यानी हमारी देसी भाषा में "कौन बनेगा करोडपति' इस कॉन्सेप्ट को कई देशों के लोकल लैंग्वेज में अपनाया गया है। इस गेम में, एक वांटेस्टेंट 15 मल्टीपल-चॉइस सवालों का जवाब देता है। अगर वह सारे सही जवाब देता है तो $1 मिलियन का प्राइज जीतता है।
इस गेम में कंटेस्टेंट्स की 3 लाइफ लाइन की मदद मिल सकती है। उनमें से एक है 50-50, जो बार में से दो चॉइस की हटा देता है। अगता है किसी ऐसे इंसान को कॉल करना जिसे जवाब पता हो सकता है। आखिरी ऑप्शन है ऑडियंस पोल यानी ऑडियंस से पूछना। यहां लाइय बैठकर देख रहा हर viewer अपने जवाब की सबमिट करने के लिए एक छोटे से डिवाइस का इस्तेमाल करता है।
इन सभी ऑप्शस में से सबसे ज्यादा सक्सेस किसमें मिलती होगी? आपको शायद लग रहा होगा की किसी दोस्त को कॉल करने का ऑप्शन सबसे अच्छा है क्योंकि वह कंटेस्टेंट किसी ऐसे इंसान को ही चुनेगा जो एक्सपर्ट होगा।
लेकिन, ये एक्सपर्ट्स सिर्फ 65% सवालों का ही सही जवाब दे पाते हैं। इसके मुकाबले में, रैंडम लोगों से बनी ऑडियंस का सक्सेस रेट 91% है। इसका मतलब है की इस बात का 91% चांस है की स्टुडियों में बैठे शी को लाइव देख रहे viewer सही जवाब का अंदाजा लगाएंगे।
इससे पता चलता है की एवरेज लोगों से बना ग्रुप एक्सपर्ट्स के मुकाबले बेहतर फैसला ले सकता है। 1920s से 1950s तक, कई अमेरिकन सोशियोलॉजिस्ट ने उस थ्योरी को टेस्ट किया। इसके लिए नॉर्मन जॉनसन नाम के फिजिसिस्ट ने एक एक्सपेरिमेंट डिजाइन जिसमें लोगों की एक भूल भुलैया में जाना था। इसमें जो सबसे छोटा पॉसिबत सॉल्यूशन था उसमें नौ tum लेने थे।
एवरेज में, लोग उस भूल भुलैया को सॉल्य करने के लिए 34.3 स्टेप्स लिए थे। फिर, उन्हें दोबारा कोशिश करने के लिए कहा गया। इस बार, एवरेज सॉल्यूशन 12.8 turn था। अगता, जॉनसन ने हर turn पर हर इंसान ने क्या डिसिशन लिया था, उसे कलेक्ट किया। उन्होंने हर टर्निंग प्वाइंट के लिए 'ग्रुप डिसिशन' निकलने के लिए उसका एवरेज निकाला। ऐसा करने से उन्होंने पाया कि ग्रुप के सॉल्यूशन ने उस भूल भुलैया को सिर्फ 9 स्टेप्स में पूरा कर लिया था।
हालांकि, यह थ्योरी गलत है, लेकिन सिर्फ इसलिए नहीं क्योंकि यह सिर्फ लैब में काम करती है। असली दुनिया में एक क्राउड विजडम पानी लोगों के भीड़ की बुद्धि का क्या? इसका एक अच्छा example है NASA का स्पेस शटल "चैलेंजर', जो 1986 में एक दुर्घटना में बर्बाद हो गया था। पैलेंजर अपने लॉन्य होने के 73 सेकंड बाद ही ब्लास्ट हो गया था। कई मिलियन लोगों ने इस बर्बादी की टीवी पर लाइव देखा था।
उरा एक्सीडेट के कुछ समय बाद ही, स्टॉक मार्केट के उन्नीस्टर्स ने इस पर रिएक्ट करना शुरू किया। चैलेंजर को बनाने में 4 कंपनियां शामिल थी लॉकहीड, रॉकवेल, मॉर्टन चियोकोल और मार्टिन मेरिएटा (Lockheed, Rockwell, Morton Thiokol, and Martin Marietta)। इन सभी कंपनियों के स्टॉक की वैल्यू तेजी से गिरने लगी थी।
हालांकि, दिन के आखिर में, 3 कंपनियों ने रिकवर करना शुरू कर दिया था। वहीं, जब ट्रेलिंग बंद हुई तब मॉर्टन सियोकोल ने अपने वैल्यू का 12% हिस्सा खो दिया था।
बाकी की कंपनियों को बस लगभग 36 नुकसान का सामना करना पड़ा था। इससे साफ है की पब्लिक इन्वेस्टर्स ने में फैसला कर लिया था की मॉर्टन थियोकोल ही उस बर्बादी के लिए जिम्मेदार था।
कोई भी एक्सपर्ट इस नतीजे तक नहीं पहुंच पाया था। उनके इन्वेस्टिगेशन में क्रैश की वजह पता नहीं चली थी। एक्सपर्ट्स को पता लगाने में 6 महीने लगे की इस कैश की वजह ये थी कि स्पेस शटल के गैस सील में डिफेक्ट थाः ये सील मॉर्टन चियोकोल द्वारा बनाई गई थी।
पब्लिक इन्वेस्टर्स को वजह तुरंत पता चल गई थी और बिलकुल सही पता चली थी क्योंकि इस भीड़ में एक समड़ादार ग्रुप के चार फीचर्स थे। उनके ओपिनियन अलग-अलग थे, जिसका मतलब था की लोगों ने कई अलग-अलग तरह की information दी थी।
इस ग्रुप की चॉइसे भी इंडिपेंडेंट थी। लोगों ने मॉर्टन थियोकोल के स्टॉक को बेचने का फैसला अपने आस-पास के लोगों से इनफ्लुएस हुए बिना लिया था। अगला, पब्लिक इन्वेस्टर्स डिसेंट्रलाइज्ड थे यानी उन्हें किसी एक सेंट्रल सोर्स के बजाय पर्सनल सोर्सेज से information मिली थी।
आखिर में, उनके जजमेंट को साथ जोड़ा गया। इसका मतलब है की उनके फैसलों ने एक साथ मिलकर मॉर्टन बिधोकोल के मार्केट वैल्यू को बना दिया था। इस तरह, अगर ये चारों कंडीशन - डाइवर्स, इंडिपेंडेंट, डिसेंट्रलाइज्ड और एयेगेटिड या कंबाइंड, पूरे होंगे तो एक ग्रुप हमेशा एक एक्सपर्ट को हरा देगा.
कित्सी क्राउड के इंटेलिजेंस का वेन्स सिर्फ चैलेंजर के कैश जैसे बड़े इवेंट्स तक ही लिमिटेड नहीं है। यह अक्सर हमारी जिंदगी के ज़्यादातर रूटीन वाली चीज़ों में दिखाई देते हैं।
दुनिया में, क्राउड इंटेलिजेंस का इसोमाल करने वाला सबसे बड़ा यूज़र गूगल है।
गूगल आपको हमेशा अपने कंपटीटर्स के मुकाबले में ज़्यादा सही रिजल्ट्स दिखाता है। यह पेजरँक सिस्टम की वजह से होता है। गूगल आपके सर्च रिजल्ट्स में लिंक्स के मुताबिक वेबसाइट की रैंक देता है।
Example के लिए, अगर पेज 2 पैज 1 के किसी लिंक को होस्ट करता है, तो पेज 2 ने पेज 1 के लिए वोट किया है। इसका मतलब है की आपके सर्च रिजल्ट में पेज 1 ज़्यादा ऊपर आएगा।
जो पेज लिंवड होते हैं उन्हें अवसर ज्यादा हाई रैंक मिलता है। और देवसाइट पर पेज को लिंक कौन करता है? यह वह भीड़ या जनरल पब्लिक होती है जी हर रोज गूगल का इस्तेमाल करती है।
कौन सा पेज ज़्यादा वैल्युएबल है ये decide करने के लिए गूगल पूरे इंटरनेट के ओपिनियन की पूज करता है। यह सिस्टम किसी टेक एक्सपर्ट द्वारा बनाए गए किसी भी दूसरे एल्गोरिथम से कहीं बेहतर तरीके से काम करता है।
The Value of Diversity
20th सेंचुरी में लगभग हर कार गैसोलीन या डीजल पर चलती थी। कार मैन्युफैक्चरर्स अपनी गाड़ियों को चलाने के लिए कबस्शन इंजन का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन, जब कार का इन्वेंशन हुआ था तब कई अलग अलग तरह के इंजन हुआ करते थे।
थॉमस एडीसन ने 1899 में ही बैटरी-पावर्ड यानी बैटरी से चलने वाली कार बनाई थी। उस वक्त, कई लोगों ने सोचा था की शायद इसके लिए पूरे अमेरिका में चार्जिंग स्टेशन होंगे। 20th सेंचुरी के शुरुआत में, बोट और ट्रेन स्टीम इंजन पर चलते थे। कई लोगों ने सोचा की इसी सेम मॉडल को ऑटोमोबाइल में भी अप्लाई करना लॉजिकल होगा।
लेकिन 1910 तक, गैसोलीन के इंजन ने मार्केट पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया था। इलेक्ट्रिक कार रिचार्ज किए बिना ज़्यादा दूर तक नहीं जा सकते थे। स्टीम इंजन को गर्म होने में लंबा समय लगता था। सबसे जरूरी बात यह है की गैस-इंजन वाले कार मैन्युफैक्चरर ने पहली बार मास-प्रोडक्शन मेचड का इस्तेमाल किया খা।
अमेरिका की शुरुआती ऑटो इंडस्ट्री का सबसे इम्पोर्टेन्ट या बड़ा फीचर था उसकी डायवर्सिटी। कई अमीर एंटरप्रेन्योर्स ने अलग-अलग तरह के इजन को try किया। इससे लोग बहुत सारे ऑप्शस में से अपना मनपसंद ऑप्शन चुन सकते थे।
इसी तरह की घटना को मधुमक्खियों की कॉलोनी में देखा जा सकता है। जब एक छत्ता बनाया जाता है तब मधुमक्खियों को खाने के लिए नेक्टर का सोर्स ढूंढने की जरुरत होती है इसलिए उस छत्ते में रहने वाली मधुमक्खियों का ग्रुप फूलों को ढूंढने के लिए "स्काउट मधुमक्खियों" को भेजता है।
जब स्काउट मधुमक्खियों को नेक्टर का कोई अच्छा सोर्स मिल जाता है तब वह वापस आते हैं और एक डांस का इस्तेमाल करके अपने छत्ते को अलर्ट करते हैं। इसके बाद, नेक्टर जमा करने वाली मधुमक्खियों का एक ग्रुप उन स्काउट मधुमक्खियों को फॉलो करता है।
नेक्टर सोर्से की quality के मुताबिक उस छत्ते की मधुमक्खियाँ ये फैसला करती हैं की कौन से नेक्टर सोर्सेसें का इस्तेमाल करना है। अब इस ग्रुप में से बहुत कम मधुमक्खियों उन जगहों पर जाती हैं जो ज्यादा अच्छे सोर्स नहीं होते हैं और अच्छे सोर्स की तरफ ज़्यादा मधुमक्खियाँ जाती हैं। इसका नतीजा ये होता है कि मधुमक्खिया टॉप-quality के नेक्टर सौर्सेज़ की तरफ जाने के लिए खुद को equally बांट लेती हैं।
इंसान की सोसायटी में, डाइवर्स सॉल्यूशंस का एक सेंट ढूंढना काफी नहीं है। जो ग्रुप सही सॉल्यूशन को चुन रहा है वह भी डाइवर्स होना चाहिए। इसके बड़े example में, जैसे की ऑटोमोबाइल मार्केट में ऐसा नेचुरली होता है। यहाँ कोर्ड ऐसी जगह ढूंढना बहुत मुश्किल है जहां एक जैसे कई मिलियन लोग हों।
लेकिन, कंपनी बोर्ड जैसे छोटे ग्रुप में आपको जानबूझकर डायवर्सिटी बनानी होगी। नहीं तो, कुछ बायस्ड मेंबर्स ग्रुप के फैसले पर नेगेटिव असर डाल सकते हैं। इससे वह टीम एक जाल में भी फंस सकली है जिसे "ग्रुपर्थिक" कहते हैं।
ग्रुपर्थिक तब होता है जब सेम माइंडसेट वाले लोग ग्रुप बनाते हैं। फिर उनका विरोध करने के लिए और उनके गलत आइडियाज पर सवाल उठाने के लिए कोई नहीं होता है। आइए, 1961 के वे ऑफ पिग्स इनवेजन का example देखते हैं। उस समय, अमेरिकंस ने फैसला किया था की वह सिर्फ 1200 आदमियों को लेकर क्यूबा पर हमला करेंगे और उस देश पर कब्ज़ा कर लेंगे।
एक एवरेज इंसान को भी यह आइडिया बेवकूफी जैसा लग सकता है। सीआईए ने क्यूबन आर्मी की पावर और डिक्टेटर (तानाशाह) फिडेल कैस्ट्रो के इनफ्लुएंस को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया था। यहां तक की जिस आइलैंड पर वह हमला करने जा रहे थे उन्होंने उसके साइज़ को भी ध्यान में नहीं रखा था।
सीआईए ने ऐसा मान लिया था की किसी को पता नहीं चलेगा की इस हमले को अमेरिका ने लीड किया था, भले ही यह guatemala में एक ओपन सीक्रेट था। इससे पता चलता है की ग्रुपर्थिक लोगों को बहुत बेवकूफी भरे फैसले लेने पर मजबूर कर देता है।
डायवर्सिटी का मतलब ये नहीं है की इसमें अलग-अलग रेरा, धर्म और जेंडर के लोगों का होना ज़रूरी है। इसका मतलब होता है डाइवर्स स्किल्य, आइडियाज़ और फिलोसॉफि रखने वाले लोगों का एक ग्रुप में होना। डायवर्सिटी अलग-अलग नज़रिए को एक साथ जोड़ देता है। यह ग्रुपर्थिक को कम करके लोगों को गलत फैसले लेने से बचने में भी मदद करता है।
यही वजह है की हमेशा नए एम्प्लॉयज को हायर करते रहने से कंपनियों को फायदा होता है। हो सकता है की उनका एक्सपीरिधंस कम हो, लेकिन कंपनी में किसी के पास भी उनके जैसा लेटेस्ट, अप-टू-डेट नॉलेज ना हो।
एक ग्रुप को इमेजिन करें जिसमें कई एवरेज लोग हैं जो अलग-अलग सोच रखते हैं। ये ग्रुप उस ग्रुप के मुकाबले हमेशा बेहतर फैसला लेगा, जिसमें एक्सपर्ट लोग हर बात पर एक दूसरे से सहमत हो जाते हैं।
यह हमें सोचने पर मजबूर कर देता है की क्या कुछ स्पेसिफिक फील्ड्स में "एक्सपर्ट्स" सच में होते भी है या नहीं। स्पोर्ट्स या रिपेयर और मेंटेनेंस में परफॉरमेंस साफ तौर पर एक्सपीरियंस और स्किल पर डिपेंड करता है, लेकिन 'स्ट्रेटजी" या "फैसले लेने" जैसे बड़े कॉन्तष्ट का क्या?
कई अलग-अलग इंडस्ट्रीज में एक्सपर्ट्स को बहुत ज्यादा गलत अंदाजा लगाने के लिए जाना जाता है। 1927 में, वॉर्नर ब्रदर्स के हेनरी वॉर्नर ने अंदाजा लगाया था की कोई भी बिना साउंड की फिल्में नहीं देखना चाहेगा।
आईबीएम के थॉमस वॉटसन ने 1943 में अंदाजा लगाया था की ऑर्डिनरी लोगों को कभी कंप्यूटर की ज़रुरत नहीं होगी। फंड मैनेजर और ट्रेडिंग एक्सपर्ट्स अक्सर मार्केट से खराब परफॉर्म करते हैं।
ये example, लोगों की भीड़ की बुद्धिमानी या समझदारी को साबित करते हैं। हमें सिर्फ़ एक्सपर्ट के ओपिनियन पर डिपेंडेंट होकर नहीं रहना चाहिए। हमें ग्रुप के ओपिनियन को भी देखना चाहिए, खासकर तब जब डायवर्सिटी, इंडिपेंडेंस और डीसेंट्रलाइजेशन के कड़ीशन पूरे हो रहे हों।
Independence
'सर्कुलर मिल', चीटियों की कॉलोनी का एक फीचर है जिसके बारे में 20th सेंचुरी में डिस्कवर किया गया था। नेचुरलिस्ट विलियम बीब ने गयाना के जंगल में चींटियों की आर्मी का एक बहुत बड़ा सर्कल देखा था। वो 1200-फुट के सर्कल में चल रहे थे। वो चीटियां दो दिनों तक उसमें गोल-गोल घूमती रही जब तक कि उनमें से ज़्यादातर गिरकर मर नहीं गई।
सर्कुलर मिल तब बनता है जब चीटियां अपनी कॉलोनी से अलग हो जाती हैं। इसमें हर चींटी अपने से आगे वाली चींटी को फॉलो करती है। इससे एक सर्कुलर मिल बन जाता है जो सिर्फ तभी टूट सकता है जब उनमें से कुछ चीटियां उस सर्कल से बाहर निकल जाएं।
आमतौर पर, चींटियों की कॉलोनी बिल्कुल परफेक्ट तरह से काम करती है। किसी को उन्हें इंस्ट्रक्शन देने की ज़रुरत नहीं पड़ती। हर वर्कर चींटी को कुछ भी पता नहीं होता है, लेकिन अपने पड़ोसी के मूवमेंट को देखकर वह उसके मुताबिक अपने बिहेवियर को बदल सकती है। उनके इंडिपेंडेंट होकर न सोच पाने की कमी की वजह से सर्कुलर मिल बन जाता है।
इंसान चींटियों के जैसे नहीं होते। हम फैसले लेने के लिए दूसरे के इनफ्लुएस पर डिपेंड नहीं करते हैं। एक बार फिर से, चैलेंजर की बर्बादी और नॉर्मन जॉनसन के भूल-भुलैया के example को याद करें, जिसमें हमने पाया था कि कैसे इंडिपेंडेंट और बिना कोऑर्डिनेशन के चलने वाले लोगों का एक ग्रुप ज़्यादा बेहतर फैसले ले सकता है।
एक ग्रुप के समझदार होने के लिए इंडिपेंडेंस का होना दो वजहों से ज़रूरी होता है-
पहला, यह एक जैसी गलतियों से बचाता है। गलतियों से ग्रुप के इंटेलिजेंस को तब तक नुकसान नहीं पहुंचता है जब तक वह गलतियां एक ही डायरेक्शन में न की गई हों।
डाइवर्स गलतियां यानी अलग-अलग तरह की गलतियां होने से भी सही सॉल्यूशन मिल जाता है। वहीं, जो लोग इनफॉर्मेशन के लिए एक दूसरे पर डिपेंड करते हैं वह एक जैसी गलतियां करते रहेंगे।
दूसरी वजह है की इंडिपेंडेंट मेंबर्स के पास आमतौर पर नई या अलग इनफॉर्मेशन होती है। इसरो युष्ा को एक से ज़्यादा सॉल्यूशन को एक्सप्लोर करने मिलता है. जिससे सबसे बेस्ट सॉल्यूशन चुनने का चांस बढ़ जाता है।
अकेले इंसान के पास अब भी बेकार या गलत इनफॉर्मेशन हो सकती है, लेकिन जब तक वह अकेला है तब तक वह ग्रुप को कम इंटेलिजेंट नहीं बनाएगा।
लेकिन, इंसान एक सोशल एनिमल है। हम दूसरों के साथ मिलने-जुलने से और उनसे इनफ्लुएंस होने से पूरी तरह बचकर नहीं रह सकते। म्यूचुअल फंड मैनेजर्स का example ही देख लीजिए। दो रिसर्चर्स ने पता लगाया था की ज़्यादातर म्यूचुअल फंड मैनेजर्स सेम स्ट्रेटजी को ही फॉलो करते हैं।
यह फायदेमंद तरीका नहीं है क्योंकि अगर सारे इन्वेस्टर्स एक ही स्टॉक को खरीदेंगे तो उन्हें बहुत बड़ा प्रॉफिट कमाने का मौका ही नहीं मिलेगा। फंड मैनेजर्स इस तरीके से इसलिए बिहेव करते हैं क्योंकि यह सेफ होता है।
अगर उनकी स्ट्रेटजी फेल हो जाती है तो उन्हें क्रिटिसाइज़ नहीं किया जा सकता है क्योंकि बाकी सभी लोग भी फेल हो जाते हैं। लेकिन, चे बिहेवियर एक अकेले इंसान को मिलने वाले सभी कॉम्पिटिटीव फायदों को खत्म कर देता है।
डिपेंडेंरा की वजह से होने वाले नुकसान, बरा बिना सोचे समझे किए जाने वाले बिहेवियर की वजह से ही नहीं होते हैं। आइए 1990s के टेलीकम्युनिकेशन बबल का example देखते हैं।
अपने शुरुआती दिनों में, इंटरनेट हर साल दस गुना बढ़ रहा था। टेलीकॉम कंपनिया ग्रोथ में कई बिलियन डॉलर्स इन्वेस्ट कर रही थी। रेगुलर इन्वेस्टर्स इन तेज़ी से बढ़ रही कंपनियों के स्टॉक्स खरीद रहे थे।
इन्वेस्टर्स उस चीज को फॉलो कर रहे थे जिसे 'इनफॉर्मेशन कैस्केड' कहते हैं। उन्होंने शुरुआती टेक इंवेस्टर्स को बड़ा प्रॉफिट कमाते हुए देखा था इसलिए उन्होंने उस example को फॉलो किया क्योंकि यह सक्सेस स्ट्रेटजी साबित हो चुकी थी। इनफॉर्मेशन कैस्केड, किसी ट्रेंड को फॉलो करने जैसा नहीं होता है। सर्फेस पर ये लॉजिकल डिसिशन होते हैं।
1996 के आसपास, इंटरनेट की ग्रोथ रेट धीरे-धीरे कम होना शुरू हो गई थी। 2000 के दशक की शुरात तक, कई टेलीकॉम कंपनियों का दिवाला निकल गया था। उनके इन्वेस्टर्स ने अपना सब कुछ खो दिया था।
क्या इसका मतलब ये है की इनफॉर्मेशन के लिए हमें सिर्फ खुद पर डिपेंडेंट रहना चाहिए? नहीं, ऐसा करना प्रैक्टिकल नहीं होगा। एक इसान को सब कुछ पत्ता नहीं हो सकता है। इनफॉर्मेशन और expertise लोगों के बीच बटी हुई होती है। एक दूसरे की नकल करके, हम सभी के यूनिक नॉलेज का इस्तेमाल कर सकते हैं।
हालांकि, दूसरों की नकल करने से ग्रुप को तभी फायदा होता है जब इसे समझदारी से किया जाए। इसका मतलब है की दूसरे लोग जो कर रहे हैं उसे आख बद करके फॉलो ना करें। आपको उनके बिहेवियर के पीछे की वजह को समढ़ाने की कोशिश करनी होगी।
1943 की एक स्टडी में, intelligent imitation यानी समझदारी से नकल करने का एक बेहतरीन डेमो दिया गया था। शुरुआती 20th सेंचुरी में, आयोवा के किसानों को मकई के एक हाइब्रिड वैरायटी के बारे में बताया गया। इसे इस तरह एडवरटाइज़ किया गया था की ये फसल की 20% बढ़ा सकता है।
उनमें से ज़्यादातर किसानों ने मकई के बारे में ज़्यादा जानने की कोशिश नहीं की, लेकिन उनमें से कुछ ने खुद रिसर्च किया और इस नए हाइब्रिड वैरायटी को ट्राई किया। बाकी के किसानों ने यह देखने के लिए इंतजार किया की वह नई वैरायटी सक्सेसफुल साबित होती है या नहीं। जब पहले ग्रुप की फसल बहुत अच्छी हुई तब जाकर बाकी के किसानों ने उस हाइब्रिड मकई को ट्राई किया।
दूसरे ग्रुप ने अपने पूरे खेत पर नई मकई नहीं उगाई थी। उन्होंने ये देखने के लिए कि उन्हें भी पहले ग्रुप जैसा रिजल्ट मिलता है या नहीं, इसे बस एक छोटी सी जगह पर उगाया था। आयोवा के आधे किसानों को नई मकई को अपनाने में 9 साल लग गए।
इस example में इनफॉर्मेशन कैसकेड हुआ था, लेकिन इससे सभी लोगों को फायदा हुआ क्योंकि उन्होंने समझदारी से नकल की थी।
The Art of Decentralisation
पर्ल हार्बर पर हुए हमले के बाद, अमेरिका को एक स्ट्रॉन्ग सीक्रेट सर्विस की ज़रुरत थी। कई जनरल एक सेंट्रल बॉडी बनाने के सपोर्ट में थे जिसके पास इंटेलिजेंस से जुड़ी हर एक्टिविटी का पूरा कंट्रोल होता। इसलिए, 1947 में सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) को बनाया गया।
लेकिन, अमेरिकन इंटेलिजेंस एजेंसी असल में कभी सेंट्रलाइज्ड थी ही नहीं। सीआईए के अलावा भी कई इंडिपेंडेंट सीक्रेट सर्विसेज मौजूद थे, जिनमें FBI (Federal Bureau of Investigation), NSA (National Security Agency) और DIA (Defense intelligence Agency) शामिल हैं। उनकी मिलिट्री के तीनों ब्रांच के भी अपने-अपने अलग इंटेलिजेंस ऑपरेशन थे।
ये इंडिपेंडेंट पुजा डीसेंट्रलाइज्ड थे। इसका मतलब है की उन्हें कोई एक सिंगल अथॉरिटी कंट्रोल नहीं करती थी। अमेरिका की अलग अलग इंटेलिजेंस एजेंसी कभी कभार ही एक साथ काम करती थी। हालांकि, उन सभी का मकसद अमेरिका के खिलाफ होने वाले किसी भी हमले से बचाना था।
19805 में, डीसेंट्रलाइजेशन एक पॉपुलर कॉन्सेप्ट बन गया था। इसे इंटरनेट के बढ़ने ने सपोर्ट किया था, जो दुनिया का सबसे बड़ा डीसेंट्रलाइज्ड सिस्टम है। 'नैपस्टर जैसी फाइल शेयरिंग सर्विस ने सेंट्रलाइज्ड इंडस्ट्री को हिलाना शुरू कर दिया था। अब कंपनियों ने ट्रेडिशनल कॉरपोरेट स्ट्रक्चर्स के बजाय सेल्फ मैनेज्ड टीम पर ध्यान देना शुरू कर दिया।
डीसेंट्रलाइजेशन की मेन ताकत यह है की ये इंडिपेंडेंस को बढ़ावा देता है। इसमें स्पेशलाइज्ड लोग किसी प्रॉब्लम पर अकेले काम कर सकते हैं और फिर दूसरों के साथ कोऑर्डिनेट कर सकते हैं। हालांकि, इसका नुकसान यह है की कुछ इनफॉर्मेशन कभी उस कम्युनिटी तक पहुंच ही नहीं पाती है इसलिए नई चीजों की जानकारी को इकट्ठा करने और उन्हें शेयर करने का एक सिस्टम होना बहुत जरूरी है।
Linux ऑपरेटिंग सिस्टम इस मॉडल का बेहतरीन example है। फिनिश हैकर लिनस टोरवाल्ड्स (Linus Torvalds) ने 1991 में Linux को डेवलप किया था। यह 'यूनिक्स ऑपरेटिंग सिस्टम' का उनका अपना version था। फिर, टोरथाल्ड्स ने Linux को पब्लिक के लिए फ्री में रिलीज़ कर दिया। वह अपने कोड के लिए कुछ सुझाव और इंप्रूवमेंट चाहते थे।
Linux डाउनलोड करने वाले 10 में से 5 लोगों ने इंप्रूव्ड कोड और बग फिक्स के बारे में बताया। समय के साथ, हजारों प्रोग्रामर्स ने Linux में फीचर्स add करना शुरू कर दिया। आज, यह माइक्रोसॉफ्ट के विंडोज ऑपरेटिंग सिस्टम का सबसे बड़ा चैलेंजर है।
लेकिन जैसा की माइक्रोसॉफ्ट में होता है, वैसे Linux को इंप्रूव करने के लिए प्रोग्रामर्स को पैसे नहीं दिए जाते हैं। यानी कि अगर उसमें कोई सॉफ्टवेयर प्रॉब्लम होती है तो उसे तब तक ठीक नहीं किया जाता है जब तक कोई उसे ठीक करने के लिए वॉलिंटियर नहीं करता है। Linux एक डीसेंट्रलाइज्ड सिस्टम है। इसका कोई ऑफिशियल organization नहीं है और कोई भी दुनिया के किसी कोने से भी इसमें इम्प्रूवमेंट suggest कर सकता है।
Linux इतने अच्छे से इसलिए काम कर पाटा है क्योंकि डीसेंट्रलाइजेशन डायवर्सिटी को बढ़ावा देता है। एक कंपनी अपने एम्प्लॉयज की प्रोजेक्ट देती है। जब वह प्रॉब्लम पर काम करते है तब वह उन्हें मैनेज करते हैं। इसलिए, माइक्रोसॉफ्ट के एम्प्लॉयज लिमिटेड सॉल्यूशंस को ही एग्जामिन कर पाते हैं।
साथ ही, Linux के पास volunteers का हैरान कर देने वाला नंबर है। इसका मतलब है की इस बात का ज़्यादा चास है की किसी प्रॉब्लम पर ज्यादा लोग काम
कर रहे होंगे। किसी भी कंपनी के लिए हजारों प्रोग्रामर्स को एक ही प्रॉब्लम सॉल्व करने के काम पर लगाना फायदेमंद नहीं होगा। लेकिन, कर्ड इंडिपेंडेंट थिंकर्स का होना सबसे बेस्ट सॉल्यूशन ढूंढने का परफेक्ट तरीका है।
लेकिन Linux उस इनफॉर्मेशन को कैसे इकट्ठा करता है जो उसके volunteers है? भले ही यह एक डीसेंट्रलाइज्ड सिस्टम है लेकिन सारे कोड एक ही ग्रुप के पास पहुंचते हैं। टोरवाल्ड्स खुद प्रोग्रामर्स की इस टीम को लीड करते हैं। Linux में add किए गए किसी भी इम्प्रूवमेंट को खुद एक्सेप्ट था रिजेक्ट करते हैं।
एग्रीगेशन का मेथड (information को इकट्ठा करके जोड़ना) डीसेंट्रलाइजेशन के लिए ज़रूरी होता है। इमेजिन कीजिए की प्रोग्रामर्स का एक ग्रुप किसी प्रॉब्लम पर काम कर रहा है। एग्रीगेशन के बिना, सबसे बेस्ट सॉल्यूशन वही होगा जो सबसे इंटेलिजेंट प्रोग्रामर ने ढूंढा होगा। लेकिन एग्रीगेशन जितने भी अलग- अलग सॉल्यूशन अवेलेबल होते हैं उन सबके बेस्ट फीचर्स को ढूंढता है।
Linux का example साबित करता है की डीसेंट्रलाइजेशन के काम करने के लिए कुछ कंडीशंस का पूरा होना ज़रूरी है। अफसोस कि अमेरिका की इंटेलिजेंस कम्युनिटी में कोर्ड एग्रीगेशन सिस्टम नहीं है। वो बड़े-बड़े आतंकवादी खतरों का अंदाज़ा लगाने में फेल रहे है. जैसे की 9/11 का आतंकवादी हमला।
डीसेंट्रलाइज्ड organization अपने दम पर ही पावरफुल होते हैं, लेकिन उनके पास इंफॉर्मेशन को शेयर करने के लिए कोई मैकेनिज्म नहीं होता है। सेंट्रलाइजेशन इसका सॉल्यूशन नहीं था क्योंकि बड़े ग्रुप हमेशा ज्यादा इंटेलिजेंट होते हैं। लेकिन, अगर अलग-अलग डेटा को साथ लाकर जोड़ा ना जाए यानी एग्रीगेट ना किया जाए, तो कोई भी क्राउड या ग्रुप सक्सेसफुल नहीं हो सकता है।
Science: Collaboration and Competition
आपको क्या लगता है कि साइंटिफिक डिस्कवरी का प्रोसेस कैसा होता होगा? हम में से ज़्यादातर लोगों को लगता है की बड़े इन्वेंशन अकेले किसी जीनियस द्वारा उनके लैब में किए जाते हैं। असल में, साइंटिस्ट्स ज़्यादातर टीम्स में काम करते हैं।
मिड 20th सेंचुरी के बाद से, अकेले किए जाने वाले साइंटिफिक प्रोजेक्ट्स और भी कम हो गए हैं। 10-20 लोगों द्वारा रिसर्च पेपर लिखा जाना जैसे अब नॉर्मल सा हो गया है। 1994 में टॉप क्वार्क की डिस्कवरी का क्रेडिट 450 फिजिसिस्ट्स को दिया गया था। साइंटिफिक रिसर्च के लिए कॉलेबोरेशन करना एक ग्लोबल स्टैंडर्ड बन गया है।
2003 के SARS वायरस रिसर्च प्रोजेक्ट को ही देख लीजिए। नवंबर 2002 से लेकर फरवरी 2003 के बीच, 305 चाइनीज सिटीजंस अजीबोगरीब तरीके से बीमार हो गए थे। उनमें जुखाम के सिम्पटम थे, लेकिन टेस्ट से पता चल रहा था की ये कोई दूसरी बीमारी है। क्योंकि कुछ पेरोट्स गरने लगे थे इसलिए WHO (वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन) ने उस वायरस पर जाँच करना शुरू किया।
11 रिसर्च लेबोरेटरीज़ ने इस प्रोजेक्ट को ज्वाइन किया। यह दुनिया भर में यूरोप, ईस्ट एशिया और नॉर्थ अमेरिका में थे। ये लेब्स इंडिपेंडेंट तरीके से काम करते थे लेकिन उनके द्वारा ढूंढी गई चीज़ों के बारे में डिस्कस करने के लिए वह रोज़ मीटिंग करते थे। हर लैब के रिजल्ट को WHO के डेटाबेस में पोस्ट किया जाता था।
कई लैब्स ने रोम सैंपल्या को स्टडी किया था। इस चीज़ ने उनके एनालिसिस की स्पीड और एफिशिएंसी को इंप्रूच कर दिया था। यह प्रोजेक्ट 2003 में 16 मार्च को शुरू हुआ था। पांच दिनों के बाद, हॉन्ग कॉन्ग के एक लैब ने वायरस के कुछ सैंपल्स को आइसोलेट किया। अप्रैल 16 तक, उन्होंने SARS के लिए जो वायरस जिम्मेदार था उसे डिटेक्ट कर लिया था और जानवरों पर किए जाने वाले ट्रायल ने उसे कन्फर्म कर दिया था।
SARS प्रोजेक्ट मेडिकल रिसर्च में एक बहुत बड़ा सोरा था। जो लैब्स अकेले काम करते हैं उन्हें नए वायस्सस को पहचानने और आइसोलेट करने में महीनों पा कभी-कभी चालों का वक्त लग जाता है, लेकिन 2003 में इन 11 लैब्स ने इस चैलेंज को सिर्फ एक महीने में पूरा कर दिया था।
इंटरेस्टिंग बात यह है की इन लैब्बा के कोलैबोरेशन का इन-चार्ज कोई नहीं था। भले ही WHO ने इस प्रोजेक्ट को ऑर्गनाइज किया था, लेकिन उन्होंने लैब्स को इंस्ट्रक्शन नहीं दिए थे। उन्होंने इंडिपेंडेंट तरीके से खुद को ऑर्गनाइज किया था। इसका नतीजा ये हुआ की लैब्बा ने काम को अपने बीच बांटने का सबसे एफिशिएंट तरीका ढूंढ़ा।
ये example दिखाता है की साइंटिस्ट्स एक दूसरे के साथ कोलैबोरेट क्यों करते हैं। यह रिसर्च वर्क को डिवाइड करके एक इंसान पर पड़ने वाले बोझ को कम कर देता है। इसके अलावा, समय के साथ साइंस के कई ब्रांच बहुत स्पेशलाइज्ड हो गए हैं। एक अकेले इंसान के लिए एक प्रोजेक्ट के सारे पहलुओं को समझना मुश्किल है। कोलैबोरेशन उनकी यूनिक स्किल्स और नॉलेज को साथ मिलाने में साइंटिस्ट्स की मदद करता है।
ज्वाइंट प्रोजेक्ट्स के ज्यादा सक्सेसफुल होने के भी चांसेज होते हैं क्योंकि वह रिसर्च टीम की डाइवर्सिटी को बढ़ा देता है। अलग-अलग नजरिया होने का मतलब है ज़्यादा से ज़्यादा नए आइडियाज़ को टेस्ट किया जाएगा। SARS के केस में, हर लैब के पास शुरुजात में यूनिक श्योरी थी। ज़्यादा ग्रुप्स होने से इस बात के चांसेज बढ़ गए थे की उनमें से कोई एक वायरस को डिटेक्ट कर लेगा।
गहराई में जाने से हमें पता चलता है की दूसरों के साथ कोलैबोरेट करना ही सक्सेसफुल होने का रास्ता है। 1996 में की गई एक स्टडी में पता चला की जिन रिसर्चर्स ने सबसे ज़्यादा डिस्कवरीज की हैं वे अक्सर कोलैबोरेट करते रहे हैं।
साइंटिस्ट्स नए इन्वेंशन के पीछे इसलिए नहीं भागते हैं क्योंकि उन्हें सोसायटी की परवाह है। आमतौर पर उन्हें सबसे ज्यादा चिंता इस बात की रहती है की उनके द्वारा की गई खोज के लिए उन्हें पहचान मिले। लेकिन इस सेलफिश बिहेवियर से अल्टीमेटली हमें ही फायदा होता है। पहचान पाने के लिए एक रिसर्चर को अपना काम पब्लिकली पब्लिश करना होता है। हर नया प्रोजेक्ट साइंटिफिक कम्युनिटी को पहले से ज्यादा स्मार्ट बना देता है।
बिलकुल SARS के टीम की तरह ही, साइंटिफिक रिसर्च सेंटर आमतौर पर डीसेंट्रलाइज्ड होती है। Example के लिए, Manhattan प्रोजेक्ट जैसे गवर्नमेंट के
सक्सेसफुल रिसर्च प्रोग्राम मौजूद हैं। हालांकि, साइंटिस्ट्स को आमतौर पर इसके लिए डायरेक्यान नहीं दिए जाते हैं।
तो, साइंस में एग्रीगेशन का सिस्टम क्या है? साइंटिफिक कम्युनिटी नए-नए पब्लिश किए गए रिसर्च को पढ़ती है और फिर फैसला करती है की उसका इस्तेमाल कैसे करना चाहिए। हालांकि, यह साइंस के डीसेंट्रलाइज्ड स्ट्रक्चर के एक नुकसान को सामने लाता है।
ज़्यादातर पब्लिश किए गए रिसर्च को कभी-कभार ही पढ़ा जाता है। सबसे ज़्यादा उन्हीं कामों को देखा जाता है जिसे जाने-माने साइंटिस्ट्स ने पब्लिश किया होता है। जब फैमस साइंटिस्ट्स टीम में काम करते हैं तो ज्यादातर क्रेडिट उन्हें ही मिलता है। साइंटिफिक कम्यूनिटी इंटेलिजेंट क्राउड की तरह काम करती है, लेकिन वह अपने पूरे पोटेंशियल का इस्तेमाल नहीं कर रहे होते हैं।
इस प्रॉब्लम को फिक्स करने के लिए ज्यादा से ज्यादा कोलैबोरेशन किया जाना चाहिए।
Committees, Juries, and Teams
द कोलंबिया स्पेस शटल में 16 जनवरी, 2003 को अपनी 28वीं उड़ान भरी थी। जब वह एटमॉस्फियर में पहुंचा तब कोलंबिया के फ्यूल टैंक से एक बड़ा सा फोम का टुकड़ा टूटकर निकल गया। नीचे गिरने से पहले वह फॉम का टुकड़ा स्पेस शटल के लेफ्ट विंग में टकरा गया था।
उस एक्सीडेंट की बजह से हुए डैमेज की स्टडी करने के लिए इंजीनियर्स के एक ग्रुप को बुलाया गया। लेकिन, कैमरे से मिलने वाला सबूत इतना क्लियर नहीं था की किसी नतीजे पर पहुंचा जा सके। इंजीनियरिंग टीम ने NASA को इनफॉर्म किया की डैमेज बहुत ज्यादा भी हो सकता है।
मिशन मैनेजमेंट टीम (MMT), जिसे लिंडा सैम लीड कर रही थी, वह फ्लाइट्स के लिए जिम्मेदार थीं। जब हैम को डैमेज की रिपोर्ट मिली तो उन्होंने फैसला किया की फोम का टकराना बहुत बड़ी बात तो नहीं है इसलिए मीटिंग में उन्होंने कहा की अगर विंग डैमेज हो गया था तो भी वह इसमें कुछ नहीं कर सकते थे।
1 फरवरी को, कोलंबिया ने स्पेस से वापस घरती के एटमॉस्फर में एंटर किया। गर्म हवा की बजह से लेफ्ट विंग पर लगा हीट रशील्ड जलने लगा। फिर शटल दो हिस्सों में टूट गया और उसमें मौजूद 7 मेंबर्स की मौत हो गई।
MMI इस बात का example है की छोटे घुप्स की कैसे काम नहीं करना चाहिए। ये लेसन जरूरी हैं क्योंकि ऐसी ही टीम्स हमारी जिंदगी का भी ज़रूरी हिस्सा होती हैं। जैसे, जूरी फैसला करते हैं की कोई इंसान अपराधी है या निर्दोष है, बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स कंपनी की स्ट्रेटजी बनाते हैं। ज्यादातर प्रौजेक्ट्स की टीम ही हैंडल करते हैं।
छोटे ग्रुप्स के मेन फीचर्स में से एक है इंडिपेंडेंस की कमी होना। लोगों पर स्टॉक मार्केट के प्राइस का असर पड़ता है। लेकिन, उनका कंपनियों मा दूसरे ट्रेडर्स के साथ कोई गहरा रिश्ता नहीं होता है। छोटे ग्रुप्स इससे अलग होते हैं। भले ही यह टेंपररी हों तब भी, हर मंगर ग्रुप की आइडेंटिटी ले लेता है। उन सभी का एक दूसरे पर बहुत असर पड़ता है।
इस तरह के ग्रुप में नुकसान ये है की ये बहुत बुरे फैसले से सकते हैं। इंडिपेंडेंस के बिना, वह भीड़ से मिलने वाली इंटेलिजेंस का इस्तेमाल नहीं कर सकते। हालांकि, उनके बीच का
रिश्ता ग्रुप मेंबर्स को बेहतर परफॉर्म करने के लिए बढ़ावा दे सकता है। अच्छे से काम करने वाले ग्रुप में लोग ज्यादा मेहनत के साथ जऔर स्मार्ट तरीके से काम करते हैं।
चलिए MMT के example पर वापस चलते हैं। उनकी पहली गलती ये थी की सभी ने लिंडा हैम के सुझाव को फॉलो किया था। हैम ने डिस्कशन की शुरुआत नतीजे के साथ करके गलती की थी। उसने पहले ही फेराला कर लिया था की उस एक्सीडेंट के बारे में कुछ नहीं किया जा सकता था।
इसके अलावा, MMT के पास जी भी information श्री उसने उस पूरे information का इस्तेमाल नहीं किया था। उसने इंजीनियर्स द्वारा दिए गए सारे warning sign को नज़रअंदाज़ कर दिया था। इसके मैन वजहों में से एक वजह थी की MMT ज़्यादा डाइवर्स नहीं था। इसके सारे मेंबर्स एक जैसे एकेडमिक बैकग्राउड से थे। उसमें ऐसा कोई भी नहीं था जो अलग तरीके से सोचकर ग्रुप के फैसले को चैलेंज कर सकता था।
कई स्टडीज बतानी हैं की ग्रुप की सक्सेस के लिए डायवर्सिटी का होना बहुत जरूरी है। जिस जूरी में ऐसे लोग होते हैं जो हर बात पर एक दूसरे से सहमत नहीं होने, वैसी जूरी ज़्यादा सोच समझाकर फैसले लेती है। इस केस में, जरूरी नहीं है की माइनोरिटी का ओपिनियन इंटेलिजेंट वा अनबायस्ड हो। ये ग्रुप में मौजूद होकर ही ग्रुप को पहले से ज़्यादा स्मार्ट बना देते हैं।
MMT में जो दूसरा फीचर मिसिंग वा बो था एक एग्रीगेटिंग सिस्टम। भले ही टीम के मेंबर्स के पास अलग-अलग आबुडियाज़ थे, लेकिन उन्हें मीटिंग में एक्सप्रेस नहीं किया जाता था। हर डिस्कशन के दौरान हैम उन्हें डोमिनेट करती थी और मेंबर्स से सवाल पूछती थी। इसके बजाय अगर टीम हर मामले पर वोट करती तो वो ज़्यादा काम करता।
जैसा की आप देख सकते है, छोटे ग्रुप्स के कई नुकसान हैं। यह हर्म ऐसा सोचने पर मजबूर कर देता है की क्या हमें उन्हें हटा देना चाहिए। एक छोटे ग्रुप का काम एक भरोसेमंद इसान को दिया जा सकता है।
लेकिन, एक्सपेरिमेंट्स में देखा गया है की ग्रुप ज़्यादा जल्दी इंटेलिजेंट फैसले ले सकते हैं। ऐलन ब्लाइंडर, यूएस फेडरल रिजर्व बैंक के वाइस चेयरमैन थे। उनकी कमिटी पर अक्सर एफिशिएट न होने का आरोप लगाया जाता था।
रिटायर होने के बाद, इकोनॉमिक्स के स्टूडेंट्स की मदद से ब्लाइंडर ने एक स्टडी डिजाइन की। उन्होंने उनसे सेंट्रल बैंक का रोल निभाने के लिए कहा। बेरोजगारी और महंगाई के हिसाब से, उन स्टूडेंट्स की इंटरेस्ट रेट को बढ़ाना या घटना पड़ता था। एवरेज में, घुष्स ने अकेले इंसान के मुकाबल बेहतर फैसले लिए थे।
साथ ही, ब्लाइंडर ने पाया की ग्रुप की सक्सेस सबसे स्मार्ट इंसान से भी ज़्यादा थी इसलिए एक इंटेलिजेंट इकोनॉमिस्ट की परफॉरमेंस एक ग्रुप में रहने से इंप्रूव हो जाती है। यह हमें बताता है की कई केसेस में ग्रुप के फैसाले ज़्यादा वैल्युएबल होते है। हालांकि, ग्रुप के बेहतर तरीके से काम करने के लिए कुछ कंडीशंस का पूरा होना भी जरूरी है।
The Company
कॉपोरेशन, प्रोडक्ट्स और सर्विसेज देने के लिए लोगों के बड़े गुप्स को ऑर्गनाइज़ करते हैं। उनके टारगेट तक पहुंचने में लगने वाले खर्च को कम करने के लिए उन्हें एफिशिएंट तरीके से डिजाइन भी किया जाना चाहिए। लेकिन, इन फैक्टर्स के अलावा भी एक कंपनी कैसे काम कर सकती है इसकी कोई लिमिट नहीं है।
हालांकि, शुरुआती 20th सेंचुरी में, एक कंपनी का स्ट्रक्चर क्लीयर तरीके से डिफाइंड होता था। पहला, उसे ऐसा डिजाइन किया जाता था ताकि कॉर्पोरेशन उसके सेल्स के प्रोसेस के हर स्टेप को कंट्रोल कर सके। Example के लिए फोर्ड, मैन्युफैक्चरिंग में इस्तेमाल होने वाले iron ore और लैंड की माइनिंग की कंट्रोल करता
अगला, एक कॉपर्पोरेशन को hierarchy के मुताबिक बनाया जाता था। इसका मतलब है की एम्प्लॉयज के बीच एक रैंकिंग सिस्टम होता था। मैनेजमेंट में जो लोग ऊपर के लेवल पर होते थे उनके ऊपर अपने से नीचे लेवल वाों की जिम्मेदारी होती थी। ज़्यादा कॉम्प्लेक्स प्रॉब्लम को हाई लेवल पर भेज दिया जाता था।
आखिर में, सभी कॉर्पोरेशन को सेंट्रलाइज़ करना पड़ता था। इसका मतलब है की कंपनी का हेड क्वार्टर हर डिवीज़न के ऑपरेशन को कंट्रोल करता था। बड़ी स्ट्रैटजी पर फैसला सिर्फ सेंट्रल चोंडी ले सकता था। अक्सर, यह पावर सीईओ के पारा होती थी।
इन फीचर्स की वजह से, कई अमेरिकन कॉपरिशन भीड़ की समहादारी का इस्तेमाल नहीं कर पाए। एम्प्लॉयज के आइडियाज़ को बॉस तक पहुंचने के लिए कई लेवल से होकर गुज़रना पड़ता था। हर मैनेजर उस आइडिया के एक्सेप्ट होने के चांस को बढ़ाने के लिए उसमें बदलाव कर देता था। फोर्ड की फैक्ट्री के मैनेजमेंट में सुपरवाइजर और चेयरमैन के बीच 15 लेवल की दूरी होती थी।
आइए जनरल मोटर्स में हेडलाइट के एक नए डिजाइन के example को देखते हैं। इस बदलाव को अप्रूव करने के लिए 15 मीटिंग करनी पड़ी थी। इनमें से 5 मीटिंग में सीईओ बैठे थे। भले ही ये कंपनी डिस्कस करने को बढ़ावा देती हो फिर भी यह बहुत ज़्यादा इनएफिशिएंट था।
एक कॉर्पोरेशन में ग्रुप की इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करने के लिए, उसके एम्प्लॉयज को इंडिपेंडेंटली काम करना होगा। हालांकि, कॉरपोरेट इंसेंटिव सिस्टम आमतौर पर ऐसे बिहेवियर को बढ़ावा नहीं देते हैं।
Example के लिए, जूनियर एम्प्लॉयज प्रमोट होना चाहते हैं, लेकिन अपने बॉस के खिलाफ जाकर वह ऐसा नहीं कर सकते हैं। इसलिए, यह एम्प्लॉयज बजट के आ रही दिक्कतें और प्रोडक्ट के फैल हो जाने जैसे बुरे इनफॉरमेशन को छुपाते हैं।
इंटेलिजेंस के बावजूद भी, कोई भी ईमानदारी से मिलने वाले इनफॉर्मेशन के बिना अच्छे फैसले नहीं ले सकता है। लेकिन, लगभग सारे कॉरपोरेट इंसेंटिव्स एम्प्लॉयज को बेईमान बनने के लिए बढ़ावा देते हैं। आइए एम्प्लॉयज को दिए जाने वाले बोनस के example को देखें।
डॉनल्ड रॉय नाम के एक सोशियोलॉजिस्ट 19505 के दौरान एक मशीन शॉप में काम करते थे। वहां वर्कर्स को उनके प्रोडक्शन रेट के मुताबिक पैसे दिए जाते थे। जब यह किसी स्पेसिफिक टारगेट को पूरा कर लेते थे, तब उन्हें मशीन के हर पार्ट के लिए ज़्यादा पैसे दिए जाते थे।
हालांकि, वर्कर बहुत एफिशिएंट तरीके से काम नहीं करना चाहते थे क्योंकि तब मैनेजमेंट टारगेट को बढ़ा देती थी। इसका नतीजा ये होता था की वर्कर्स जितना हो सके उतनी ज़्यादा मेहनत करने पर फोकस नहीं करते थे। इसके बजाय, वह अपने काम को कम करते हुए बोनस को बढ़ाने पर फोकस करते थे।
जब आप मैनेजर्स को एक टारगेट तक पहुंचने के लिए कहते हैं तो उनका बिहेवियर और भी ज्यादा खराब हो जाता है। पहला, मैनेजर कम से कम टारगेट सेट करने की कोशिश करेगा। इस तरह उसे आसानी से बोनस मिल जाएगा।
एक बार जब टारगेट सेट हो जाएगा तब मैनेजर वहां तक पहुंचने के लिए जो भी जरूरी होगा वह करेगा। इसमें अकाउंट्स को मैनिपुलेट करना और गलत रिपोर्ट देना शामिल है।
एम्प्लॉयज को मोटिवेट करने का एक असरदार तरीका है उन्हें स्टॉक ऑप्शन देना। इत्तका मतलब होता है एम्प्लॉयज को कंपनी के शेयर्स देना। इससे उसे ऐसा महसूस होता है की वह भी उस कॉपोरेशन का मालिक है। इसका नतीजा ये होता है कि वो बेस्ट पॉसिबल चॉइस करने के लिए इंडिपेंडेंट तरीके से काम करते हैं।
अकेले एक एम्प्लॉय कपनी की वैल्यू को बढ़ाने के लिए कुछ भी नहीं कर सकता है। हालांकि, स्टॉक ऑप्शंस को बांटना मोटिवेट करना का पावरफुल तरीका है। ऐसा देखा गया है की इससे कॉरपोरेट में होने वाले प्रॉफिट और प्रोडक्टिविटी बढ़ जाते हैं।
डीसेंट्रलाइजेशन के जरिए भी एक कॉपर्पोरेशन ज़्यादा एफिशिएंट बन सकता है। आइए टोयोटा का example देखते हैं। जहां फोर्ड के मैनेजमेंट में 15 लेवल थे वहीं टोयोटा में सिर्फ 5 लेवल थे। इस समय के दौरान, उन्होंने फेमस टोयोटा प्रोडक्शन सिस्टम (टीपीएस) इंट्रोड्यूस किया था।
पहले कार मैन्युफैक्चरर्स एक असेंबली लाइन का इस्तेमाल करते थे। इसमें हर वर्कर कार में कोई एक पार्ट की जोड़ता था और उसे पूरे मशीन के बारे में कुछ पता नहीं होता था। टीपीएस का फोकस उसके वर्कर्स को ज़्यादा स्किल्स सिखाना था। उन्हें प्रोडक्शन के प्रोसेस का हर स्टेप समझना होता था।
टीपीएस ने मैकेनिक्स की टीम बनाई जो कार को एक साथ मिलकर बनाते थे। हर टीम अपनी खुद की प्रोडक्शन टेक्नीक डेवलप कर सकता था। इसका नतीजा ये हुआ की टोयोटा की मैन्युफैक्चरिंग फैसिलिटी उसके कपटीटर्स के मुकाबले में ज्यादा एफिशिएंट हो गई थी।
ग्रुप इंटेलिजेंस को इस्तेमाल करने के लिए कॉर्पोरेशन को सीईओ के इनफ्लुएंस को कम करना होगा। 20th सेंचुरी ऐसे कई सीईओ से भरी हुई थी जिनकी वजह से उनकी कंपनियां कंगाल हो गई थीं। ऐसा इसलिए नहीं हुआ क्योंकि वह बुरे लीडर थे बल्कि इसलिए हुआ क्योंकि अकेला इंसान हमेशा सही नहीं हो सकता है। जब एक ही इंसान सारे फैसले ले रहा होता है तब उस कंपनी का फेल होना तय है।
इसके बजाय, कंपनियों को अपने एम्प्लॉयज के इनपुट को एग्रेगेट यानी इकट्ठा करने का मकसद रखना चाहिए। Hewlett-Packard ने लेट 1990s में इसे टेस्ट
किया था। अपने प्रिंटर के सेल्स का कैजुअली अंदाजा लगाने के लिए उन्होंने अलग-अलग डिविजन के एम्प्लॉयज को बुलाया। उस समय, 75% ऐसा हुआ की इस ग्रुप का लगाया गया अंदाज़ा, कंपनी के ऑफिशियल फोरकास्ट से बेहतर था।
Conclusion
सबसे पहले, आपने क्राउड इंटेलिजेंस यानी भीड़ की बुद्धिमानी के बारे में जाना। एवरेज लोगों से बने बड़े ग्रुप एक्सपर्ट्स से बेहतर परफॉर्म कर सकते हैं। असली ज़िंदगी में इसके कई example मौजूद हैं, जिनमें गेम शोज़ से लेकर इंटरनेट और स्टॉक मार्केट तक शामिल हैं।
दूसरा, आपने डायवर्सिटी की इंपोर्टस के बारे में जाना। डाइवर्स ग्रुप ज़्यादा आइडियाज़ डेवलप करते हैं, जिससे बेस्ट आइडिया मिलने का चांस बढ़ जाता है। डायवर्सिटी "ग्रुपर्थिक" जैसे बर्बाद करने वाले बिहेवियर को भी कम कर देता है।
तीसरा, आपने जाना की कैसे इंडिपेंडेंस एक ग्रुप के डिसिशन को इंप्रूव करता है। यह लोगों को एक जैसी गलतियां करने से बचाता है और यूनिक इनफॉर्मेशन का इस्तेमाल करने में उनकी मदद करता है।
हालांकि, इंसान में दूसरों की नकल करने की आदत को खत्म करना नामुमकिन है। इनफॉर्मेशन कैरकेड में हम भीड़ को फॉलो करते हैं, लेकिन अगर नकल भी समझदारी से की जाए तो मददगार हो सकती है।
चौथा, आपने डीसेंट्रलाइजेशन के बारे में जाना। यह कॉन्सेप्ट लोकल और स्पेशलाइज्ड सॉल्यूशन को बढ़ावा देता है। लेकिन, एक अच्छे एग्रीगेशन सिस्टम के बिना डीसेंट्रलाइजेशन फेल हो जाएगा। Linux जैसे ओपन सोर्स प्रोजेक्ट्स डीसेंट्रलाइज्ड मॉडल को फॉलो करते हैं।
पांचवा, आपने जाना की कैसे साइंटिफिक रिसर्च में ग्रुप की इंटेलिजेंरा का इस्तेमाल किया जाता है। आज-कल साइंटिस्ट्रा कभी-कभार ही अकेले काम करते हैं। वह हाई स्किल वाले ग्रुप्स बनाने के लिए कोलैबोरेट करते हैं। रिसर्चर्स इंडिपेंडेंट तरीके से काम करते हैं और अपने रिसर्च को पब्लिश करते हैं। फिर साइंटिफिक कम्युनिटी इन नई खोजों को एग्रीगेट या इकट्ठा करती है।
छठा, आपने छोटे ग्रुप्स की वजह से होने वाले नुकसान के बारे में और उनका सामना कैसे करना है इस बारे में जाना। आपको ग्रुप के लीडर के इनफ्लुएंस को कम करना होगा और इंडिपेंडेंस को बढ़ावा देना होगा। आइडियाज़ को इकट्ठा करने के लिए एक एग्रेगेटिंग सिस्टम भी इंट्रोड्यूस करना होगा। एक दूसरे के खिलाफ़ जाने वाले आईडिया को बढ़ावा देने के लिए डाइवर्सिटी बनाए रखें,
सातवाँ, आपने कंपनियों में ग्रुप इंटेलिजेंस के इस्तेमाल के बारे में जाना। पुराने hierarchical कॉरपोरेट स्ट्रक्चर एफिशिएंट नहीं रह गए हैं। डिसिशन लेने का पावर सिर्फ सीईओं के पास नहीं होना चाहिए। कंपनियों को इनसेंटिव्स भी डेवलप करने चाहिए जो एम्प्लॉयज को इंडिपेंडेंट तरीके से सोचने और काम करने के लिए बढ़ावा दे सकें।
ग्रुप इंटेलिजेंस कोई ऐसा इफेक्ट नहीं है जो हमें किसी एक्सपेरिमेंट में मिलता है। यह इंसान के पोटेंशियल का एक एक्सप्रेशन है जो हमारी जिंदगी पर पॉजिटिव असर डाल सकता है। अपने टीम में डायवर्सिटी, इंडिपेंडेंस और डीसेंट्रलाइजेशन के पावर को अनलॉक करें। आज भीड़ में शामिल लोगों की बुद्धि ही हमारे सबसे बड़े चैलेंजेस को सॉल्व करने में मदद कर सकती है।
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